यज्ञ-पात्र (वास्तु अंकित 8789364798)

यज्ञ-पात्र (वास्तु अंकित 8789364798) श्रौत-स्मार्त यज्ञों में विविध प्रयोजनों के लिये विभिन्न यज्ञ पात्रों की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार कुँड मंडप आदि को विधि पूर्वक निर्धारित माप के अनुसार बनाया जाता है, उसी प्रकार इन यज्ञ पात्रों को निश्चित वृक्षों के काष्ठ से, निर्धारित माप एवं आकार का बनाया जाता है। विधि पूर्वक बने यज्ञ पात्रों का होना यज्ञ की सफलता के लिये आवश्यक है। नीचे कुछ यज्ञ पात्रों का परिचय दिया जा रहा है। इनका उपयोग विभिन्न यज्ञों में, विभिन्न शाखाओं एवं सूत्र-ग्रन्थों के आधार पर दिया जाता है। 1.अन्तर्धानकट:—वारण काष्ठ का आ
ध अंगुल मोटा, बारह अंगुल का अर्थ चन्द्राकार पात्र। गार्हपत्य कुँड के ऊपर पत्नी संयाज के समय देव पत्नियों को आढ़ करने के लिए इसका उपयोग होता है। 2. पशु-रशना:—तीन मुख वाली बारह हाथ की पशु बाँधने की रस्सी। 3. मयूख:—गूलर का एक अँगुज मोटा, बारह अँगुल का वत्स-बन्धन के लिये शकु मयूख होता है। 4. वसा हवनी:—पाक भाण्ड स्थित स्नेह-वसा हवन करने का जूहू सदृश घाऊ का स्रुक। 5. वेद:—दर्शपूर्णमासादि में 50 कुशाओं से रचित वेणी सदृश कुशमुष्टि। 6. कर्पूर:—चातुर्मास्यादि यज्ञ में बड़े गर्त्तवाला धान भूँजने का पात्र। 7. अनुष्टुव्धि:—जूहू सदृश पीपल का स्रुक। 8. विष्टुति:—उद्गाता द्वारा साम मन्त्रों की गिनती के लिये, नीचे चतुरस्र ऊपर गोल, दश अँगुल की शलाका। 9. पूर्ण पात्र:—दर्शादि इष्टि में यजमान के मुख धोने के लिये जल रखने की स्मार्त प्रोक्षणी। 10. शराव:—पायस रखने के लिए मृत्तिका का बड़े मुख एवं छोटे गर्त्त वाला पात्र। 11. उशकट:—सोम को रखने के लिए वारण काष्ठ का ढाई हाथ लम्बा त्रिकोण, डेढ़ हाथ चौड़ा दो हाथ ऊँचा शकट, जिसमें एक हाथ ऊँचे दो चक्र हों। 12. परिप्लवा:—कलश से सोमरस निकालने वाला काष्ठ का बना स्रुक, दस अँगुल लंबा हंसमुख सदृश नालीदार पाँच अँगुल गोलाई में बना हुआ। 13. पशुकुम्भी:—पशु श्रवण के लिये तैजस पात्र। 14. मुसल:—खैर काष्ठ का बना, मध्य में कुछ मोटा दस अँगुल का मूसल। 15. ऋतुग्रह पात्र:—काष्मरी या पीपल का बना प्रोक्षणी पात्र जिसमें हँसमुख सदृश नलिका होती हैं। 16. आज्यरथाली:—घृत गर्म करने का मृण्मय पात्र 17. उपवेष:—अँगारों को दूर करने के लिये वारण काष्ठ का बना हाथ के सदृश पाँच अँगुल बना हुआ दण्ड। 18. स्थली:—सोमरन रब्जे की सरामयी थाली। 19. इडावात्री:— ब्रह्मा, द्दोता, अध्वर्यु, अग्नीत् और यजमान के भाग रखा जाने वाला पात्र। 20. मेक्षण:—चरू इष्टि में इससे चरू का ग्रहण और होम होता है। 21. पृषदाज्य ग्रहणी:—पीपल का स्रुक, जिससे दधि मिश्रित थी ग्रहण किया जाता है। 22. प्रचरणी:—सोम यान में वैकंगत काष्ठ का बना जुहू सदृश स्रुक जिसका होम करने में उपयोग होता है। 23. परशु:—खदिर काष्ठ का बना हुआ परशु। 24. अग्निहोत्र हवणी:—श्रौत अग्निहोत्र में वंक काष्ठ का बना, जुहू के सदृश बाहुमात्र लंबा स्रुक। 25. अभ्रि:—वारण काष्ठ की बनी नुकीली अभ्रि का वेदी खनन में उपयोग होता है। 26. दोहन पात्र:—वैकंकत का प्रणाली रहित सदंड प्रोक्षणी पात्र सदृश आकार होता है। 27. दर्वी:—दंड सहित कलछी ही दर्वी है। 28. अधिषवण-फलक:—वारण काष्ठ के बने सोमलता कूटने का एक हाथ लम्बा, बारह अँगुल चौड़ा दो काष्ठ फलक होते हैं। 29. असिद:—कुशा काटने के लिये खैर का छुरा। 30. अन्वाहार्य पात्र:—दर्शपूर्ण-मास में, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और अग्नीघ्र को दक्षिणा में दिया जाने वाला ओदन जिस पात्र में पकाया जाता है। 31—ग्रावा:- पत्थर का बना सोलह अँगुल का मूसल, जिससे सोम लता कूटी जाती है। 32—उपभृत:- पीपल की जुहू सदृश स्रुक उपभृत होती है। 33—उत्पवन पात्र:- प्रोक्षणी पात्र सदृश होता है। 34—उपाँश सवन:- उपाँश नामक सोमलता को जिस पाषाण से कूटा जाता है। 35—उलूखल:- पलास,खैर, धारण का जानु प्रमाण ऊखल। 36—एक धन:- सोमरस को बढ़ाने वाले जल। 37—मूरशल:- वारण, पलास, खैर का दश अँगुल का मूरशल। 38—जुहू:- श्रौत कर्म में जिस स्रुक से हवन किया जाता है। 39—चमस:- चौकोर प्रणीता पात्र सदृश सोमरस को रखने, होम करने, और पानी के लिये चमस होते हैं। से दस भाँति के होते हैं। 40—यजमानाभिषेकासन्दी:- वाजपेय यज्ञ में यजमान को बैठने के लिये मूञ्ज की बिनी हुई एक हाथ लम्बी चौड़ी चतुष्कोण:- लघु खाट। 41—यूपरशना:- आठ हाथ लम्बी दूनी कुश की रस्सी, यूप में लपेटने के लिये यूपरशना होती है। 42—शृतावदान:- पितृ यज्ञ में पक्व पुरोडाश तोड़ने के लिये विकंकत-काष्ठ का होता है। 43—वूते भृत:- सोम रस धारण करने वाले स्वर्ण या मृण्मय-कलश। 44—पुरोडाश पात्री:- वारण काष्ठ की पुरोडाश के स्थान में प्रयुक्त होने वाली पात्री। 45—पिन्वन:- वारण का स्रुक मुख सदृश बना बिना दंड का पात्र। 46—पान्तेजन कलश:- पशु अंगों को प्रक्षालन करने का जल जिस कलश में रखा जाता है। 47—परिशास:- कलछी मुख के सदृश महावीर पात्र को पकड़ने लायक गूलर के बने पात्र। 48—सन्नहन:- इध्म और वर्हि बाँधने के लिये कुशा की वेण्याकार गूँथी रस्सी। 49—होतृ सदन:- वरना काष्ठ की बनी होता के बैठने की पीठ। 50—सोमा सन्दी:- गूलरकी बनी चार पाँवों वाली मुञ्ज की रस्सी से बीनी हुई सोम रखने के लिए बनी आसन्दी 51—सोम पर्याणहन:- वस्त्र से बन्धे सोम को ढाँकने का वस्त्र। 52—संभरणी:- वारण काष्ठ का बना सोम रखने का कटोरा। 53—शंकु:- गूलर का दश अँगुल लम्बा अग्निष्टोमादि यज्ञ में दीक्षिता पत्नी के कन्डूवनादि में उपयुक्त होने वाला। 54—उदत्रवन:- सोम याग में अम्भृण पात्रों से जल निकालने के लिये मिट्टी का पात्र (पुरवा) 55—उपयमनी:- उदुन्वर की दो हाथ लम्बी, स्रुकी के मुख से दूने मुख की, जुहू सदृश स्रुक। 56—इध्म:- पलाश की एक हाथ लम्बी, सीधी, सुन्दर त्वचा सहित,एक शाखा वाली समिधा। 57—वर्हि:- असंस्कृत तथा असंख्यात कुशा। 58—सम्भरण पात्र:- वाजपेय यज्ञ में हवन किये जाने वाले सत्रह प्रकार के अन्नों को जिस पात्र में रखा जाता है। 59—वाजिन भ्राण्ड:- फटे दूध के द्रव भाग (वाजिन) को जिस भाण्ड में रखा जाता है। 60—उपसर्जनी पात्र:- यजमान के लिये गार्हपत्य अग्नि में जल को इस पात्र में गर्म किया जाता है। 61—रौहिणपाल:- मृत्तिका का वता पकाया पात्र जो रौहिणक पुरोडाश पकाने के लिये बनाया जाता है। 62—योक्त्र:- दर्शपूर्ण मासादि यज्ञ में यजमान पत्नी के कटि प्रदेश में बाँधने के लिये तीन लड़ी, मुञ्ज की बनी वेणी सदृश रस्सी। 63—उद्गात्रासन्दी:- गवामयन यज्ञ में उद्गाता बैठने के एक हाथ लम्बी चौड़ी मुञ्ज से बिनी भीढ। 64—विघन:- पीपल का एक हाथ का शंक। 65—विकंकत शकल:- विकंकत काष्ठ की दश अँगुल समिधा। 66—दंड:- सोमयाग में यजमान तथा मैत्रावरुण के लिये मुख तक लम्बाई का गूलर का बना दंड। 67—दधि धर्म:- प्रर्ग्वयमें दस अंगुल का दधि को ग्रहण तथा हवन के लिये गूलर का बना पात्र। 68—दारुपात्री:- कात्यायनों की इड़ापात्री। 69—धवित्:- मृगचर्म से बना पंखा। 70—धृष्टि—अंगार-भस्मादि हटाने के लिये विकेकत काष्ठ का बना पात्र। 71—कृष्ण विषाणा-कृष्ण मृग का शृंग। 72—वाजिनचभस-फटे दूध के द्रव भाग को रखने का प्रणीता सदृश पात्र। 73—गलप्राही ताँबा या पीतल की एक हाथ की संड़सी। 74—स्रुक-विकंकत काष्ठ का बना बाहु प्रमाण लंबा हवन करने का हंसमुख सदृश चोंचदार पात्र। 75—यूप-खैर का बना लंबा शंकु। इसकी लंबाई भिन्न भिन्न यज्ञों में भिन्न भिन्न रखी जाती है। 76—ग्रह-विकंकत काष्ठ का बना उलूखल सदृश सोमरस तथा होमोपयोगी वस्तु रखने का पात्र। 77—स्फ्य-अग्रवेदी को खोदने रेखा करने के लिये एक हाथ लंबा चार अँगुल चौड़ा खैर काष्ठ का वज्र-दंड। 78—स्रुक—होम करने के लिये खैर काण्ड का बना गोल छिद्र संयुक्त एक हाथ लंबा पात्र। 79—ऋतु पात्र ग्रह कार्ष्मय:—पीपल के प्रोक्षपी पात्र सदृश दोनों तरफ हंसमुख सदृश सोमरस ग्रहण करने का पात्र। 80—प्रोक्षणधानी:- जुहू के सदृश बना स्रुक। 81—शूल—वारण काष्ठ का बना, अभ्रि सदृश शूल होता है। 82—प्राशिब्रहरण:- ब्रह्मा को हुत शेव, इस चार अँगुल लम्बे चौड़े वारण काष्ठ से बने चौकोर पात्र द्वारा दिया जाता है। 83—निश्रेणी:- वाजपेय यज्ञ में सत्रह हाथ यूव से ऊपर जाने के लिये धारण काष्ठ से बनी सीढ़ी। 84—नेत्र:- सन और गौपुच्छ के बालों से बनाई गयी चार हाथ की तीन लड़ वाली गूँथी हुई वेणी। 85—निदान:—सोमयाग में गौ तथा बछड़े को बाँधने के लिये बनी रस्सी। 86—चात्र उपमन्थ:- अरणि मन्थन के लिये आठ अँगुल का बना काष्ठ शंकु। 87—वषाल:- सोमयाग में पलास का दश अँगुल लम्बा एक अँगुल गोल-आर पार छिद्र वाला पात्र विशेष। 88—शभ्या:- दर्शपूर्ण मासादि में सिल लोटी के कुट्टन आदि में प्रयुक्त होने वाला पात्र विशेष। 89—षडवत्तपात्र:- अग्नीघ्र ऋत्विक् को भाग देने के लिये वारण काष्ठ का बना एक विशेष प्रकार का पात्र। 90—सगर्त्तपुरोडाशपात्री:- सर्वहुत पुरोडाश के स्थापन और होमादि में प्रयुक्त होने वाला पात्र। 91—स्वरु:- पशुलला स्पर्श एवं होमादि में प्रयुक्त होने वाला दश अँगुल का खड्गाकार पात्र। 92—स्थूण:- गौ बाँधने के लिये बनी खूँटी। 93—सोमोपनहन:- सोमलता बाँधे जाने वाले दौहरे चौहरे वस्त्र। 94—दृपत उपला:- पुरोडाश के पोषण में प्रयुक्त होने वाले दश अँगुल लम्बे आठ अँगुल चौड़े पाषाण। 95—करम्भ पात्री:- दक्षणाग्नि में पक्व सत्तु तथा दधि रखने का छोटे छोटे गोल पात्र। 96—पञ्चविलापात्री:- कृष्ण यजुर्वेदियों के काम आने वाला पात्र विशेष। 97—पिशीलक:- चातुर्मासान्तर्गत गृहमेधि में उपयोग होने वाला पायस रखने का धातु का बड़े मुख वाला पात्र। 98—परिवेचन घट:- आपस्तम्ब के लिये आधवनीय सदृश कलश। 99—त्रिविला पात्री:- वारण काष्ठ से बना एक विशिष्ट भाँति का बना पात्र। 100—दशा पवित्र:- जीवित भेड़ के ऊनों से बना सोमरस छानने के लिये बना हुआ छन्ना। 101—कूर्च:- सायं-प्रातः अग्निहोत्र के समय स्रुक रखने का वारण काष्ठ से बना पात्र विशेष। 102—ओबिली:- मन्थन दन्ड को दबाने के लिये खैर काष्ठ का बना उपमन्थ। 103-समित्:—पलासादि की दश अँगुल लम्बी सुन्दर अविशाखा लकड़ी। 104-महावीर:—सोमयाग में दीपक रखने के लिये मृत्तिका से बना एक विशिष्ट पात्र। 105—मेखला-यजमान के कटि प्रदेश में बाँधने के लिये चार हाथ की मुञ्ज से वेणी सदृश गुँथी रस्सी। 106—तानूनस्र चमस:- इष्टि के अनन्तर सोलहों ऋत्विक् जिस घृत का स्पर्श कर परस्पर अद्रोह की शपथ लेते हैं उस घी को रखने का पात्र। 107—धर्मासन्दी:- धर्म सम्बन्धी सभी पात्रों को रखने के लिये तीन हाथ ऊँचा गूलर का बना आसन विशेष। 108-ध्रवा—करण काष्ठ का बना जुहू के सदृश बाहुप्रमाण स्रुक, जो यज्ञ के अन्त तक रखी जाती है। 🍁🌹हरये🙏🙏नम:🌹🍁 🌺🌺होमार्थे समिध:🌺🌺 समिद्धोमप्रकरण के आम्रकाष्ठनिषेधपरक कुछ अविचारित शास्त्रवाक्य फेसबुक आदि में भ्रमण कर रहे हैं, जिनमें गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। अग्निप्रज्वालन के लिये यज्ञकुण्डों में जो मोटे-मोटे काष्ठ दिये जाते हैं, वह समिद्धोम नहीं है; होम तो वहाँ घृत, शाकल्य और ग्रहसमिध् से हो रहा है। शास्त्रों के होमप्रकरण में ऐसे काष्ठखण्डों को यज्ञसमिध् नहीं कहा जाता है, लोक में अवश्य ही समिधा के नाम से उनकी प्रसिद्धि हो गई है। किञ्चित् कर्मों का होम आम्रसमित् से न हो, यह विधान है। अन्य घृतादि होमीय द्रव्यों से किस काष्ठ की अग्नि में होम करना चाहिये, यह विचारणीय है; जो फेसबुक पर प्रचलित लेख में नहीं है। शास्त्रों में शाखाभेद से १८, २१, २५, २७ एवं २८ प्रकार की यज्ञसमिधाओं के नाम और विधान मिलते हैं; जिन्हें गम्भीर श्रौतमेधा से देखने का प्रयास किया जाना चाहिये। 🌹समित् या समिधलक्षण- यजमान या आचार्य के अङ्गुष्ठ सी मोटी, प्रादेशमात्र (फैले हुए अङ्गुष्ठ से तर्जन्यग्रपर्यन्त या "नवाङ्गुलपरिमाण: प्रादेश:" यानी लगभग ७ इञ्च), छिलके, अग्रभाग और पत्रसहित, विशाख या चिकनी, सीधी, आर्द्र या शुष्क होती है। समिध से कई श्रौत-स्मार्त होमों का विधान है। समिध् और इध्म (समिद्द्विगुण) आदि के पृथक्-पृथक् लक्षण हैं। मन्त्रमहार्णवादि तन्त्रों में कर्मभेद से आम्रकाष्ठ को भी होमार्थ समिध के रूप में ग्रहण किया गया है-🌹"आम्रकाष्ठं समानीय पञ्चकोणं च कुण्डलम्।। सप्ताङ्गुलमितान्काष्ठाञ्जुहुयात्साधक: सदा।।" पुन: बड़े यज्ञों के विविध यज्ञकुण्डों में समिद्धतम अग्नि के लिये आम्रकाष्ठ का प्रयोग करने में आपत्ति नहीं है। प्राथम्येन यज्ञहोम की अवश्यकरणीयता, यज्ञकर्मलोपभिया एवं यज्ञरक्षार्थ जिस क्षेत्र में जिस काष्ठ की विशेष उपलब्धि हो, बड़े यज्ञों में अग्निप्रज्वालनार्थ उसे ही शुद्ध मानकर ग्रहण कर लेना चाहिये। शास्त्रों में यज्ञकाष्ठ, यज्ञसमित् एवं यज्ञेध्मादि के विशेष विचार हैं। कर्मकाण्डीय निर्णय को प्रसारित करने से पहले परम्परया गम्भीर चिन्तन कर लेना आवश्यक है, अन्यथा समाज में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सावधान- गम्भीर श्रौत-स्मार्त विषयों पर फेसबुक की विशेष पण्डिताई भी फेकबुक जैसी ही हो जाया करती है। विशेष विचार विस्तृतरूपेण कभी लिखा जा सकता है। आपका अभिनन्दन.....(वास्तु अंकित 8789364798)

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